Tuesday, July 24, 2018

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें / अहमद फ़राज़

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें

(हिजाबों = पर्दों)

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

(मुमकिन = सम्भव)

आज हम दार पे खेंचे गये जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें

(दार = सूली), (निसाबों = पाठ्यक्रमों, मूल, आधार)

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

(ग़म-ए-दुनिया = सांसारिक दुख ), (ग़म-ए-यार = मित्र का दुख)

अब न वो मैं हूँ, न वो तू है, न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें

(माज़ी = अतीत्, भूतकाल), (सराबों = मृगतृष्णा)
-अहमद फ़राज़
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