आँखें हैं के खाली नहीं रहती हैं लहू से
और ज़ख्म-ए-जुदाई है के भर भी नहीं जाता
और ज़ख्म-ए-जुदाई है के भर भी नहीं जाता
वो राहत-ए-जान* है इस दरबदरी में
ऐसा है के अब ध्यान उधर भी नहीं जाता
ऐसा है के अब ध्यान उधर भी नहीं जाता
हम दोहरी अज़ीयत* के गिरफ़्तार मुसाफ़िर
पाऔं भी हैं शील शौक़-ए-सफ़र भी नहीं जाता
पाऔं भी हैं शील शौक़-ए-सफ़र भी नहीं जाता
दिल को तेरी चाहत पर भरोसा भी बहुत है
और तुझसे बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता
और तुझसे बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता
पागल होते हो ‘फ़राज़’ उससे मिले क्या
इतनी सी ख़ुशी से कोई मर भी नहीं जाता
इतनी सी ख़ुशी से कोई मर भी नहीं जाता
कुर्बत = मोहब्बत, प्यार
राहत-ए-जान = मन को प्रसन्न करने वाली
अज़ीयत = किसी को पहुंचाई जाने वाली पीड़ा, अत्याचार
राहत-ए-जान = मन को प्रसन्न करने वाली
अज़ीयत = किसी को पहुंचाई जाने वाली पीड़ा, अत्याचार


